कभी घने अँधेरे में साए दिखते हैं अनदेखे-अनचीन्हे ,
चले आते हैं सर झुकाए, दुबकते सिमटते, अपने लबादों में हथियार खोंसे,
कीटों की भांति रेंगते- सरकते, टिड्डियों की तादाद में ,
सब्र की इन्तहा लेने, हमारे वीरों का ।
रक्षा में तैनात जवान लगते हैं जान की बाजी ,
सियासत उन्ही कायरों के स्वागत की राह है साजी ,
देख खौलता है खून , तरस आता है उस दिन पे जब राज तिलक किया था,
बार-बार याद दिलाते हैं ये सियासतगार, की आम आदमी केवल एक दिन जिया था,
अंगड़ाई ले के उठो मेरे मीत ,
अब इन खद्दरधारी काले कौवों को ,
सठे साठ्यम समाचरेत,
हमें ही सिखानी होगी यह नीति।