8 Aug 2013

सठे साठ्यम समाचरेत













कभी घने अँधेरे में साए दिखते  हैं अनदेखे-अनचीन्हे ,
चले आते हैं सर झुकाए, दुबकते सिमटते, अपने लबादों में हथियार खोंसे,
कीटों की भांति रेंगते- सरकते, टिड्डियों की तादाद  में ,
सब्र की इन्तहा लेने, हमारे वीरों का ।
रक्षा  में तैनात जवान लगते हैं जान की बाजी ,
सियासत उन्ही कायरों के स्वागत की राह है साजी ,
देख खौलता है खून , तरस आता है उस दिन पे जब राज तिलक किया था,
बार-बार याद दिलाते हैं ये सियासतगार, की आम आदमी केवल एक दिन जिया था,
अंगड़ाई ले के उठो मेरे मीत ,
 अब इन खद्दरधारी काले कौवों को ,
सठे साठ्यम समाचरेत,
हमें ही सिखानी होगी यह नीति।


 


5 Jul 2013

आज का मंज़र

















 आज  का मंज़र कुछ ऐसा  बेरंग है कि हर तरफ धुंध दिखती है .
दिलों के द्वार बंद हों , तो यूँ ही अरमानों पे दूसरों की रोटियां सिकती हैं  .

जागने - जगाने  के ख्वाब नहीं  पालता मैं , अभी पलो ख्वाब्गाहों  में .
ख्वाब टूटने के दर्द का हो इल्म , तो आना हमारी बाहों में .

पाओगे वही सुकून, वही एहसास .
जो करता है , इन्सान से इन्सान का रिश्ता खास .